वैदिक मंत्रों से संभव है मानसिक रोगों का उपचार
कुछ वर्षों पहले तक शारीरिक रोगों की शिक्षा ग्रहण करने में चिकित्सकों का ध्यान अधिक था जबकि वर्तमान में स्थिति बदल रही है। शारीरिक रोगों के साथ–साथ मानसिक स्वास्थ्य संबंधित बीमारियों से मनुष्य पीड़ित दिख रहा है। जैसे–जैसे मनुष्य आर्थिक रूप से सबल और सक्षम होता जा रहा है, उसके मानसिक रोग बढ़ते जा रहे हैं।
प्राचीन काल में ऋषि–मुनि वर्षो तक ईश्वरीय ज्ञान वेदों पर चिंतन–मनन कर मनुष्यों के कल्याणार्थ उपदेश देते थे। उनके उपदेशों में जीवन के उद्देश्य से लेकर जीवन से सम्बंधित समस्याओं के निवारण के सूत्र समाहित होते थे। वेदों में अनेक मन्त्र मनोरोग की चिकित्सा अंग्रेजी में कहावत Prevention is Better Than Cure अर्थात् रोकथाम ईलाज से बेहतर है, के सिद्धांत का पालन करते हुए करते हैं।
मानसिक रोगों की उत्पत्ति में मनुष्य की प्रवृत्तियां जैसे काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या–द्वेष, अहंकार आदि का प्रमुख योगदान हैं। प्रारम्भ में आंशिक रूप से उत्पन्न हुई प्रवृत्तियां कालांतर में मनुष्यों को मानसिक रोगों की ओर धकेल देती हैं। वेदों की उदात्त भावनाएं, और सूक्ष्म सन्देश मनुष्य के चिंतन पर सकारात्मक प्रभाव डाल कर उसकी इन रोगों से रक्षा करते हैं। इन संदेशों पर आचरण करने वाला इन रोगों से कभी ग्रसित नहीं होता। इस लेख में कुछ उदाहरण के माध्यम से समझते हैं।
1. ईष्या त्याग: –अथर्ववेद 6/18/1-3 मन्त्रों में आया है कि मनुष्य दूसरों की उन्नति देखकर कभी ईर्ष्या न करे। जैसे भूमि ऊसर हो जाने से उपजाऊ नहीं रहती और जैसे मृतक प्राणी का मन कुछ नहीं कर सकता, वैसे ही ईर्ष्या करने वाला जल– भुनकर ईर्ष्याहीन हो जाता है। ईर्ष्या–द्वेष न करें अपितु पुरुषार्थ से उन्नति करें। ईर्ष्यालु व्यक्ति मनरोगों का घर होता है।
2. दुर्व्यसन त्याग:– अथर्ववेद 8/4/22 मन्त्र में पशुओं के व्यवहार के उदाहरण देकर दुर्व्यसन के त्याग की प्रेरणा दी गई है। मनुष्यों को उल्लू के समान अन्धकार में रहने वाला नहीं होना चाहिए, कुत्ते के समान क्रोधी और सजातीय से जलने वाला नहीं होना चाहिए, हंस के समान कामी नहीं होना चाहिए, गरुड़ के समान घमण्डी नहीं होना चाहिए, गिद्ध के समान लालची नहीं होना चाहिए दुर्व्यसन मनोरोग की नींव हैं।
3. ईर्ष्या की औषधि:– अथर्ववेद 7/45/1-2 मन्त्र में ईर्ष्या की औषधि का वर्णन है। जिस प्रकार से वन में लगी आग पहले वन को ही नष्ट कर देती है, उसी प्रकार ईर्ष्यरूपी अग्नि मनुष्य को अंदर से भस्म कर देती है। जिस प्रकार से वर्षारूपी जल वन की अग्नि को समाप्त कर देता है उसी प्रकार से विवेकरूपी जल ईर्ष्या को समाप्त कर देता है, यह विवेकरूपी जल है सज्जनों का संग। सज्जनों की संगति से सद्विचारों का ग्रहण होता है जिससे मनुष्य विचारों में निष्पक्षता और सत्यता ग्रहण कर ईर्ष्यारूपी व्याधि से अपनी रक्षा कर पाता है।
4. मधुर वाणी बोलें :– अथर्ववेद 12/1/48 में आया है कि हम सदा मधुर वाणी बोलें, सत्य, प्रिय एवं हितकर वाणी बोलें। सभी के लिए प्रेमपूर्वक व्यवहार करें। वैर, विरोध, ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध अदि भावनाओं को मार भगायें। दृढ़ संकल्प लिया हुआ व्यक्ति पहाड़ के समान दुःख को भी वह झेल जायेगा।
5. श्रेष्ठ धन :- ऋग्वेद 2/21/6 में सन्देश आया है कि हे ईश्वर, हमें श्रेष्ठ धन दीजिये। यह श्रेष्ठ धन कया है? यह श्रेष्ठ है ईमानदारी का धन। यह धन सदा सुख देता है। धन की तीन ही गति है–दान, भोग और नाश | वेद विरुद्ध माध्यमों से प्राप्त धन व्यक्ति का नाश कर देता है। भ्रष्टाचार से प्राप्त धन स्वयं व्यक्ति और उसकी संतान का नाश कर देता है और मानसिक रोगों की उत्पत्ति का श्रमुख कारण है। अपने किये गए पाप कर्मो के फलों से ग्रसित होकर व्यक्ति मनोरोगी बन जाता है।
6. त्याग की भावना :– यजुर्वेद 40/1 का प्रसिद्ध मन्त्र “ईशा वास्यमिदम्‘ का सन्देश है कि हे मनुष्य ! जगत् का रचियता और स्वामी ईश्वर सब ओर विद्यमान है और तुम त्याग की भावना से इस संसार के पदार्थों का भोग कर। इस भावना से प्रकाशित व्यक्ति कभी अवसाद आदि मनोरोग से ग्रसित नहीं होता।
7. आत्मा को बल देने वाला :– यजुर्वेद 25/13 मन्त्र में आया है कि ईश्वर आत्मज्ञान का दाता, शरीर ,आत्मा और समाज के बल का देनेहारा है। आस्तिक व्यक्ति ईश्वर विश्वास के बल पर श्रेष्ठ कार्य करते हुए संध्या–उपासनारूपी भक्ति द्वारा अपनी आत्मा को बलवती करते हुए संसार में सुख होता हैं। यही ईश्वर विश्वास मनुष्यों को अवसाद आदि मनोरोग से बचाता हैं।
8. यजुर्वेद 34/1-6 मन्त्रों को शिवसंकल्प मन्त्रों का सूक्त कहा जाता है। इन मन्त्रों में मनुष्य ईश्वर से प्रार्थना करता है कि हे ईश्वर ! हमारा मन नित्य शुभ संकल्प वाला हो। सोते–जागते यह सदा शुभ संकल्प वाला हो। अशुभ व्यवहार को छोड़ शुभ व्यवहार में हमारा मन प्रवृत्त हो। वेदों में कई सौ मन्त्रों में मनुष्यों के कल्याणार्थ मानसिक रोगों से निवृत्ति करने का उपदेश दिया गया है जिन पर आचरण करने से मनुष्य समाज के मानसिक स्वस्थ्य की रक्षा की जा सकती है।
– डॉ. विवेक आर्य – साभार गुरुकुल दर्शन पत्रिका